वक्त के दस्ताने पहनकर
आई थी चाँदनी
बैठी थी बगल में
संस्कृति के घाव लेकर
नाप रही मानो
उन चप्पलों की घिसावट,
दुबले हो गए जो
पथरीली राहों पर बीत रहे
शाम को हारते, पर सुबह-सुबह जीत रहे
दुर्निवार जीवन-समर में।
आग पर बैठती कभी
कभी भोंक लेती अपने सीने में
कटहल काटने वाला लंबा-सा चाकू
घुस जाती बिना पूछे कमीज की
जेब में
होती ऐसी गुदगुदी
जैसी पागल होने से ठीक
पहले होती है।
भयाक्रांत हो जाता यह निश्छल मन
और
मार्क्स-मार्क्स करता, अगरबत्ती जलाता
आरती के लिए ;
सुकून खोजता कुरान की आयतों में
हड़बड़ाकर निकालता क्रिसमस कार्ड
और यीशू-यीशू लिखने लगता
अंततः सो जाता
मच्छर के सीने से दुबककर
एक गहरी नींद!
चली जाती चाँदनी तब
खूँटी पर टाँग देता कमीज जब।